खून अपना हो या पराया हो
नस्ल ए आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो या मगरिब में
अम्न ए आलम का खून है आख़िरबम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
जीस्त फाकों से तिलमिलाती है
नस्ल ए आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो या मगरिब में
अम्न ए आलम का खून है आख़िरबम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
जीस्त फाकों से तिलमिलाती है
जंग तो खुद ही एक मसला है टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतेह का जश्न हो या हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
खून ओर आग आज बरसेगी
भूख ओर एहतियाज कल देगी
इसलिए ए शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप ओर हम सभी के आंगन में
शम्मा जलती रहे तो बेहतर है
Filed under: Hindi, India, Literature, Uncategorized, Urdu